बुधवार, २७ जुलै, २०११


कितनी बार समझाया , कितनी मर्तभा ठोकर खाई....
फिरभी भरोसा करना ऩही छोड़ोगे तुम.
ये दुनिया ऐसी नही जैसा तुम इसे देखते हो, मानते हो,
इसके कुछ अपने उसूल है जिसमें तुम ऩही समाते.
फिर भी न जाने कितने ख़्वाब लिये तुम इसमें जीते रहते हो.
थक ऩही जाते ये रोज क़ी मायूसिसे से????
तेरा ये जीने का सरूर रोज तुम्हे चेहरोंके समंदर में ढकेलटा है,
और लाके छोड़ देता हैउ वहीं किनारे जहाँ पे तुमने अपनी पहली सांस ली...
थक ऩही जाते रोज की सासोंसे????
क्यूँ करतेहो दुनियाँ बदलने की कोशिश, जबकि तुमने अपने आपको ऩही बदला इतने सालोंमें..
कितने साल बीत गये , न तुम बदले न चेहरे...
हाँ, लेकिन तुम्हें संभालने वाली अम्मा ज़रूर बूढ़ी हो गयी.
थक ऩही गये इस रुकावट से???? : अस्मित

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत: