सोमवार, २२ ऑगस्ट, २०११

क्या कहूँ यारों,

क्या कहूँ यारों, आज मैने अपने आपको भीड़ मैं खो दिया..
क्या कहूँ यारों, आज मैने अपने को है पा लिया.

वो भीड़ भी क्या जिसका चेहरा हम ना बन सके,
वो महफ़िल भी क्या जिसका चिराग हम ना जला सके
न जाने किस तरह से अपने आपको बचाया हमने.

तनहा था हर एक शक्स फिर भी अपने को तराशे हुए रखता था,
ना जाने किसके इंतजार में थे सब, फूलोंसे सजाके रखा था....
वक़्त बीत गया ना कोई आया....फूलोंको बोतल में बंद करके रखा हमने.

झूमती हुई महफ़िल में, झूमते हुए उन हवाओंके साथ...
फिर कोई आवाज़ उठी और उन साहिल पे अपने आपको फिर खो दिया हमने.- अस्मित

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