गुरुवार, ४ ऑगस्ट, २०११
अपने आप को हमेशा मुझसे छुपाए तुमने...
दूसरोंको पर्बत की उचईयाँ पार करने का होसला दिलाते रहे...
लेकिन खुद को समंदर की गहराइयों की तरह दूर रखा मुझसे.....
उस दिन याद है तुमको, बारिशमें भीगते हुए रो रहे थे तुम,
मैने कारण पूछा ; तो बोले "कुछ ऩही, बारिश का पानी आखोंमें उतर गया है"....
बाद मैं पता चला, मोड़ पे वो पेड़ बूढ़ा हो गया था......
एक सवाल पूछूँ? " बाबूजी की बरसी थी ना ?????
तुम्हारे बिस्तर पर उनका कोट मिला था सुबह, गीला था....बारिश के पानी से......
हमेशा सोचती हूँ के तुम्हारी नजमें इतनी तनहा क्यूँ थी....
तुम्हारी तनहाई मुझमें नही इनमें उतरा किया करती थी......
मैने तो तुम्हारी आहटोंको पढ़ना सीखा था.....
क़लम तुम्हारी आहटें जिया करती थी......
बड़ी कोशिश की, पर तुम्हारी रात का पिटारा कभी तुमने मेरे सामने खोला ही ऩही.....
और मेरी सारी रातें बुझे हुए तारोंसे जलाई मैने......अस्मित
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